आज 15 जून दिन शनिवार अरबी महीने जिलहिज्जा की 9 तारीख है आज के दिन को यौमे अरफ़ा कहा जाता है जो साल का सबसे मुबारक दिन है इस दिन की बहुत फजीलत है
आज सूरज निकलने के बाद हाजी लोग मिना से निकल कर अरफात के मैदान की तरफ जाते हैं कोई पैदल कोई बस और कोई ट्रेन से सब के सब दो सफेद चादर ओढ़े हुए सब एक जैसे लगते हैं हर भेदभाव मिट जाता है सब की जुबान पर होता है
लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैक , ला शरीका लका लब्बैक , इन्नल हम्दा वन्नेमता लका वल मुल्क ला शरीका लक
मिना से अराफात की दूरी लगभग दस किलोमीटर है और जो लोग मक्का से आते हैं उन्हें थोड़ा घूम कर आना पड़ता है उन्हें 22 किलोमीटर का रास्ता तय करना पड़ता है
अरफात के मैदान में पूरा दिन गुजारना होता है ज़ोहर व अस्र की नमाज़ें एक साथ दो दो रकअत पढ़नी होती है और इमाम का खुतबा सुनना होता है
इमाम साहब मस्जिद ए निम्रा से खुतबा देते हैं यह मस्जिद अरफात के बगल में स्थित निम्रा के मुकाम पर बनी है इस का कुछ हिस्सा मैदाने अरफात में भी है
अल्लाह के रसूल सलललाहो अलैहे वसल्लम ने भी हज के मौके पर खुतबा दिया था जो बहुत ही इतिहासिक खुतबा था उस समय आप ऊंट पर सवार थे और ऊंट उसी मैदान में स्थित एक पहाड़ी पर था इस पहाड़ी को जब्ले रहमत कहते हैं नीचे पहाड़ी व मस्जिद दोनों की तस्वीर है पूरे अराफात के मैदान में नीम के पेड़ लगे हुए हैं और दिन भर हाजियों पर पानी की हल्की बौछार डाली जाती है जो वहां की गर्मी में बड़ी राहत देती है
अराफात के मैदान में यह दिन गुजारना ही असल हज है जो अराफात नहीं पहुंच पाता उसका हज नहीं होता है
हज में जितने काम होते हैं छूट जाने पर उस की कज़ा या कफ्फारा है लेकिन अरफात के मैदान में न पहुंचने की कोई कज़ा या कफ्फारा नहीं है सीधे-सीधे हज ही नहीं होगा इस से पता चलता है कि इस की क्या अहमियत है
सूरज डूबने के समय तक हाजी यहाँ इबादत करते हैं सूरज डूबते ही मगरिब की नमाज़ का वक्त हो जाता है पर हाजी लोग नमाज़ पढ़े बगैर मुजदलिफा की ओर निकल पड़ते हैं जो अराफात से सात किलोमीटर दूर स्थित है
मुजदलिफा में पहुंच कर मगरिब व ईशा की नमाज़ एक साथ पढ़ते हैं और खाना खा कर सो जाते हैं वहां क्या जबरदस्त नींद आती है आदमी दिन भर का थका होता है जमीन पर चटाई बिछाकर सो जाता है।